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अनजान स्टेशन

मेरा नाम राकेश है। मैं एक हीरा तराशने वाला मजदूर हूँ।  मेरा निवास सूरत गुजरात में है, वैसे मैं मूलतः बिहार  भागलपुर का हूँ।   पेट की आग इंसान को अपने मिट्टी  से दूर कर देती है साहब, वरना  गाँव  देहात  छोड़ कौन जाना  चाहता है? आज पुरे १ साल बाद गाँव  जाने के लिए  निकला हूँ।  छोटी बहन की शादी करनी रही तभाइ गाँव जा रहे है।  रात के टिरेन में बड़ी मुस्किल से बैठने का जगह मिला है।  टिरेन चल पड़ी है हम दरवाजे के पास की सीट पर खड़की के पीठ लगाए कम्बल ओढ़े बैठे है।  खिड़की का कांच वाला शटर पूरा नहीं उतरता है, हवा मरता है। रात और घना हो गया है।  टिरेन की आवाज के इलाबा बस जुगनू सुनाई पड़ता है।  हम को थोड़ा अजीब लगा इतने लोग है डिब्बा में, एक आदमी नहीं जग रहा है।  कोई खर्राटा ही मार रहा होता ! ना पुलिस आई ना टीटी। पिछला  स्टेशन में रुके काफी समय हो चूका था।  खिड़की के बहार चारो तरफ गुप्त अँधेरा। टिरेन सतपुरा और विंध्याचल के पर्बतों के बीच से सरपट दौड़ रही थी।  हमको जाने कहे नींद नहीं आ रही थी।  खिड़की के बहार अँधेरे में कोई रौशनी दिखे की नहीं इसी आस में ताके रहे।  फिर ठंडी हवा ने आँखों को बंद करवा ही दिया।